- शकील अख्तर
टीवी देखने की अब हिम्मत नहीं है, अख़बार ही नहीं पढ़े जाते! गोदी मीडिया ने घृणा कहीं और फैलाने की कोशिश की थी मगर वह सबसे ज्यादा खुद उसके खिलाफ फैल गई। जैसे घृणित चीज से आदमी दूर रहता है वैसे ही इनके टीवी और अखबारों से रहने लगा। मगर मुसलमान का प्यार सम्मान वैसा ही रहा। रोजा इफ्तार में आपने देखा ही कि बुलाया और पूरा सम्मान दिया।
अभी तीन दिन पहले अलविदा का जुमा- था, रमजान का आखिरी जुमा उस दिन भी लिखा था कि टीवी वालों को मस्जिदों से लाइव टेलिकास्ट करके पूरे देश को बताना चाहिए कि मुस्लिम क्या करते हैं? क्या दुआएं मांगते हैं?
क्या देश की तरक्की, सबकी खुशियां, हिन्दू-मुसलमान हर धर्म के लोगों की भलाई की प्रार्थनाएं हर मस्जिद से नहीं होती हैं?
नहीं बताया। गोदी मीडिया को यह आदेश नहीं है। वह गुलामी के सबसे खराब दिनों से गुजर रहा है। प्यार, मोहब्बत, भाईचारे को आंखों से देखकर भी वह उसके बारे में बता नहीं सकता। एक बड़े टीवी चेनल के मालिक उसके प्रमुख एंकर हैं तो पत्रकार भी कहते हैं खुद को वे दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम की इफ्तार की दावत में गए। बहुत खुश होकर शाही इमाम की तारीफ की। मुसलमानों ने उनका कैसा स्वागत किया यह बताया। मगर अपने टीवी पर प्रेम, भाइचारे की कितनी खबरें चलाईं, कितनी डिबेट कीं पता नहीं।
टीवी देखने की अब हिम्मत नहीं है, अख़बार ही नहीं पढ़े जाते! गोदी मीडिया ने घृणा कहीं और फैलाने की कोशिश की थी मगर वह सबसे ज्यादा खुद उसके खिलाफ फैल गई। जैसे घृणित चीज से आदमी दूर रहता है वैसे ही इनके टीवी और अखबारों से रहने लगा। मगर मुसलमान का प्यार सम्मान वैसा ही रहा। रोजा इफ्तार में आपने देखा ही कि बुलाया और पूरा सम्मान दिया।
कोई भी धर्म जाति ऐसे नहीं बदल जाती। कोई क्या कह रहा है, क्या कर रहा है उससे आप खुद को नीचे नहीं गिरा लेते। देश में न हिन्दू नफरती हुआ है और न मुसलमान।
संभल के उस पुलिस के सीओ के मालूम नहीं कि गुझिया मुसलमान कितनी खाता है और कितनी खिलाता है। हमारे यहां जितनी सिवंइयां खिलाई जाती हैं। उससे ज्यादा गुझिया। हम तो बहुत जगह रहे हैं अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान जयपुर, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, एनसीआर। बहुत सारे दोस्त हैं। सबको मालूम है कि होली, दीवाली, दशहरा और दशहरा तो हमारे गृह नगर दतिया मध्य प्रदेश में हमारे दादा साहब ( और उनसे पहले इनके वालिद, पूर्वजों) की तलवार के वार के बिना मनता नहीं था। दूर-दूर से लोग रियासत दतिया का दशहरा देखने आते थे। शहर के सबसे बड़े मैदान सुरय्यन में दतिया महाराज गोविन्द सिंह जू देव कई दिनों से पाले एक शक्तिशाली भैंसे पर भाले से प्रहार करते थे। और इसके साथ ही उसकी रस्सी काट दी जाती थी। क्रोधित भैंसा तेजी से भागता था। विशाल मैदान जो अब खेल स्टेडियम बना दिया गया है, के चारों तरफ भीड़ होती थी।
भैंसे के खुलते ही घुड़सवार सरदार उसके पीछे भागते थे। महाराज का हुक्म होता था कि रियाया तक नहीं पहुंच पाए। जनता को चोट नहीं पहुंचे। उधर जनता उन्माद में जोर-जोर से चिल्लाती थी। घबराया भैंसा कभी उनकी तरफ कभी पीछा करते घुड़सवारों की तरफ कभी जहां महाराज हाथी पर बैठे होते थे उस तरफ कहीं भी दौड़ पड़ता था। और ऐसे में दतिया और बुंदेलखंड में कहावत है कि पहला हाथ मोहम्मद हादी खां साहब ( हमारे दादा साहब) का पड़ता था। मतलब भैंसे के गर्दन पर पहला तलवार का वार।
तो लिखा इसलिए कि अब ईद पर भी जो सवाल उठाए जा रहे हैं तो देश में ईद ही नहीं मुसलमान सदियों से हर त्यौहार दशहरा, दीवाली, होली सब मिलजुल कर मनाता है।
और बताते हैं कुछ। दीवाली का जिक्र किया। तो शायद पहले लिख भी चुके हैं। कोई बात नहीं। अच्छी बातें प्रेम भाईचारे मेल-मिलाप की जितनी बार बताई जाए कम है। तो दीवाली हमारे यहां कैसे मनाई जाती थी। उसकी निशानी तो आज भी हमारे पास है। 1962 की बात है। सबसे छोटी बहन हुई थी। सब उसमें लगे थे। मगर दीवाली भी मन रही थी। हम सबसे बड़े लड़के तो सारे पटाखों पर कब्जा करे थे। आठ साल के थे। पापा उधर मां-बहन में व्यस्त थे। और हमने उनके सिगरेट का डिब्बा खाली किया। टिन का होता था। उसके नीचे रखा बड़ा सुतली बम और चला दिया।
टिन का डिब्बा सीधा आकर हमारे मुंह पर। खून ही खून। सब भागते हुए आए। एक ही बात कि आंख में तो नहीं लगा। हमें तो कुछ पता नहीं। आंखें तो बंद थीं। मगर कहा- नहीं लगा। आवाज आई आप तो चुप रहिए। आपका हिसाब तो बाद में किया जाएगा। पहले यह बताओ कि यह सिगरेट का डिब्बा आया कहां से? सिगरेट कौन पीता है? यह दादा साहब थे। सब चुप। खैर आंख बची। नाक पर कई टांके लगे। अभी भी निशान हैं। तो ऐसे मनता था दशहरा ऐसे मनती थी दीवाली। ईद पर तो हम नहीं बताएंगे। क्योंकि ईद पर ही इन सबकी नफरत फैलाने वालों की निगाहें लगी हुई हैं। वह दोस्तों में से कोई भी बता सकता है।
तो बात गुझिया से शुरू हुई थी। तो वह भी बता दें। जम्मू में थे। बेटा हुआ था। तत्काल बाद ही होली थी। अब होली में गुझिया की खोज शुरू हुई। बेटा होने के कारण घर में बनाने की स्थिति थी नहीं। पूरे जम्मू में कहीं भी गुझिया नहीं मिली। बनाई ही नहीं जाती थी। वहां प्रचलन में ही नहीं थी। अब आ गई हो तो पता नहीं। वहां का सबसे बड़ा त्यौहार लोहड़ी हुआ करता था। राखी को रक्खड़ी बोलते हैं। वह भी बड़ा त्यौहार था। होली जब हम वहां मनाते थे लोग कहते थे आपके यहां ज्यादा मनती है। वह आपके यहां भौगोलिक पहचान की बात थी। धर्म की उस समय ऐसी बातें नहीं होती थीं। और सांस्कृतिक विभिन्नता, खान-पान का फर्क कैसा था यह हमने बता ही दिया कि होली बिना गुझिया के।
और बताते हैं। भाजपा के लोग कह रहे हैं कि ईद पर नानवेज क्यों? अब तो पूरे भारत की पार्टी हो गई है! तो पूरे भारत के बारे में मालूम होना चाहिए! कश्मीर की शिवरात्रि के बारे में भी। कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा त्यौहार। बड़ा दिन कहते हैं इसको। और इस दिन नान वेज बनता है। खाते हैं खिलाते हैं।
कहां ले जा रहे हैं यह देश को। ईद पर नानवेज मना किया है। कई मुस्लिम नेताओं ने कहा नहीं खाना चाहिए। नहीं खाएंगे। आम मुसलमानों में से भी बहुत लोगों की अपीलें देखीं। बहुत लोग नहीं खाएंगे। शायद पहली बार होगा।
मगर एक बात और बता दें कि इस बार पहली बार यह भी हुआ है कि होली पर नान वेज खाया गया। हमारे यहां तो पहली बार। जैसा बताया कि होली पर सब वैज वही बनता था जो हमारे हिन्दू दोस्तों के यहां बनता रहा। मगर यहां बिहार के बहुत लोग दोस्त बने। होली के दिन तो मटन खाना ही है वाले। हमारे घर में कोई सुन ले तो अभी भी डांट पड़ जाएगी कि होली के दिन मटन का क्या मेल!
हां, ईद पर वेज हमारे यहां नार्मल है। बहुत सारे दोस्त ऐसे थे जो नान वेज नहीं खाते। उनके लिए वेज के कई आइटम बनते थे और मजेदार बात यह भी बता दें कि भाजपा आरएसएस के भी बहुत दोस्त खाने पर आते थे। मगर जरूरी नहीं कि वे सब वेज हों। वेज नानवेज कभी इशु नहीं रहा। मगर अब तो यह कहां-कहां तक विभाजन पहुंचा देंगे कहना मुश्किल है।
मगर हम तो और हम क्या? देश के अधिकांश हिन्दू-मुसलमान सब यहीं कहेंगे-
चाहे जितनी कोशिश कर लो यह देश सब त्यौहार मिलजुल कर मनाता है। और मनाता रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)